गजब की बात है अपने देश की जनाब! जहां की 70{fbd63e9a341f3e3e8d7d6e71db471c9bd21f9ca644b46ebfdd3e2dcdfb61a319} आबादी कृषि पर ही आश्रित हो, जहां की 70 प्रतिशत अर्थव्यवस्था भी कृषि पर ही आधारित हो, वहां के किसानों की दशा आजादी के 70 साल बाद भी चिंताजनक है। आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी है सरकार के पास कि गांव के अपेक्षा शहरों में बसने वाले मुट्ठी भर लोगों के लिए सारी सुख सुविधाएं उपलब्ध करवा दी जाती है, पर आज भी गांव के लोग भूख और प्यास से मर रहे हैं। शहरों में अदने से लोगों को कुछ हो जाए तो कैंडल मार्च निकाली जाती है पर पिछले दस वर्षों में तीन लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली पर कहीं से कोई नहीं निकला और जो निकले भी वह अपनी रोटियां सेंकने के लिए। अब तो आपको पता ही होगा कि यह रोटियां सेंकते कौन हैं? बस मात्र हुंकार भरे तो किसान! सब के सब अपनी तवा लेकर दौड़ पड़ते हैं। गांव में गुजर बसर करने वाले लोगों का ऐसा मानना है।
मैंने पढा है भारत की आत्मा गांव में बसती है पर कहीं देखा नहीं। वह कौन सा गांव है, मैं देखना चाहता हूं कि भारत की आत्मा किस गांव में बसती है? चलिए माना कि मैंने नहीं देखा, शायद आपने कोई ऐसा गांव देखा हो, जिससे आप महसूस करते हों कि भारत की आत्मा इसी गांव में बसती है, तो मैं भी जाकर वहां देख लेता पर ऐसा कुछ नहीं, ये सब किताबी बातें हैं और ये किताबों में ही अच्छी लगती हैं। यदि ऐसा ही होता तो आपको गांवों में भूखे और नंगे लोग दिखाई नहीं देते। देश के हर कोने में बसने वाला किसान दिन प्रतिदिन कर्ज के बोझ तले दबता जा रहा हैं पर मानो सरकार का इससे कोई सरोकार नहीं। यदि विपक्ष की बात कर ली जाए तो वह भी ‘ सुभान अल्ला ‘ की भूमिका में है। चाहे हरियाणा हो, मध्य प्रदेश हो, पंजाब हो, तमिलनाडु हो या फिर देश का कोई अन्य राज्य, विपक्ष में बैठा कोई भी राजनैतिक दल कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहता है अपनी रोटियां सेंकने में पर क्या कभी आपने सुना है कि कोई सत्ताधारी पार्टी किसानों या ग्रामीणों की समस्याओं के लिए झंडा लेकर चल पड़ी है यदि ऐसा होता तो आंकड़े इस प्रकार के नहीं होते। शायद ही आप जानते हों कि प्रतिदिन देश के दो किसान खेती करना छोड़ देते हैं।
ताजे आंकड़ों के अनुसार बात कर लें तो नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर ( नाबार्ड ) के अनुसार गांव में रहने वाले वह किसान जो खेती पर आश्रित हैं। उनकी मासिक आय ₹2000 से भी कम है। वैसे तो गांवों में सरकारी योजनाओं की भरमार पड़ी है। लेकिन सब के सब कागजी साबित हो रहे हैं। यदि वह जमीनी होते तो ग्रामीणों का शहरों में अंधाधुंध पलायन ना होता। आज सरकार सामाजिक समरसता की बात करती है पर समाज में कैसे समरसता आएगी इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठाती और यदि कोई कुछ करता भी है, तो वह कोरम पूर्ति मात्र ही है। यदि सरकार गांव और शहरों की बढ़ती हुई खाई को तत्काल नहीं पटती तथा किसानों के हित में कोई ठोस कदम नहीं उठाती है, तो बहुत जल्द ही देश के विकास रूपी रथ का एक पहिया टूट जाएगा। जिसके बाद इस विकास रूपी रथ को धराशाही होने में देर नहीं लगेगी।
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